जंगलाें में आग की प्रमुख वजह पिरूल (चीड़ के पत्तों) अब जंगल भी बचाएगा और पलायन रोकने के साथ ग्रामीणों की आर्थिक स्थिति भी मजबूत करेगा। यह सब संभव हुआ है जीबी पंत कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों और शोधार्थी तरन्नुम की वजह से। शोधार्थी तरन्नुम ने वरिष्ठ वैज्ञानिकों के निर्देशन में पिरूल से मूल्यवान बायो-ग्रीस और बायो-रेजिन (एडहेसिव) बनाने का सफल प्रयोग किया है।
पंतनगर विवि ने पेटेंट फाइल करने के साथ ही इन दोनों तकनीकों को गुजरात की कंपनी ग्रीन माॅलीक्यूल्स को (नाॅन एक्स्क्लूसिव) बेच दिया है। ऐसे में पिरूल के दाम बढ़ने से ग्रामीण इन्हें बेचकर धन अर्जित कर सकेंगे और वनाग्नि पर भी अंकुश लगेगा। पंतनगर विवि स्थित विज्ञान एवं मानविकी महाविद्यालय के जैव रसायन विभाग के वैज्ञानिक डाॅ. टीके भट्टाचार्य और डॉ. एके वर्मा के निर्देशन में तरन्नुम जहां ने यह शोध किया। डॉ. वर्मा ने बताया कि उत्तराखंड में 3.4 लाख हेक्टेयर में हर साल लगभग 2.06 मिलियन टन चीड़ के पत्तों (पिरूल) का उत्पादन होता है। पंतनगर विवि के वैज्ञानिकों ने चीड़ के इन पत्तों की सहायता से जो ग्रीस बनाया है वह मशीनों के बॉल बियरिंग में घर्षण कम करता है और जंग से बीयरिंग की रक्षा करता है, जबकि बायो-रेजिन प्लाईवुड चिपकाने के लिए उपयोगी है।
प्रदूषण भी करेगा कम
निदेशक शोध डॉ. एएस नैन ने बताया कि इन दोनों तकनीकों का विकास आईसीएआर-एआईसीआरपी -ईएएआई परियोजना के तहत किया गया है। यह तकनीक पर्यावरण में प्रदूषण भी कम करेगी। साथ इससे पलायन रुकेगा और रोजगार बढ़ेगा। शोधार्थी तरन्नुम जहां को यह तकनीक विकसित करने पर उत्तराखंड केे राज्यपाल गुरमीत सिंह ने यंग वूमन साइंटिस्ट एक्सीलेंस अवार्ड से सम्मानित भी किया है।
ऐसे बनता है बायो रेजिन
पहले पाइरोलिसिस तेल को 525 डिग्री सेल्सियस तापमान पर चीड़ के पत्तों से तैयार किया जाता है। इस तेल को फिनाइल एवं फार्मएल्डिहाइड के साथ मिलाकर घोल बनाया जाता है। उसके बाद निश्चित तापमान पर कास्टिक सोडा मिलाकर आधे घंटे रखा जाता है। ठंडा होने पर इसे एकत्रित कर लिया जाता है, जो बेहद मजबूत बायो रेजिन (एडहेसिव) का काम करता है।
पाइरोलिसिस तेल में कास्टिक सोडा को पशु वसा के साथ मिलाकर घोल बनाया जाता है। एक निश्चित तापमान पर गर्म कर इसमें पाइरोलिसिसि तेल को मिलाकर सामान्य तापमान पर ठंडा किया जाता है। इसके बाद ल्युब्रिकेटिव ग्रीस तैयार हो जाती है।